अग्नि-देवता के सूक्त

 

अग्नि-भागवत संकल्पशक्ति

 

 इस जाज्वल्यमान देवताका नाम अग्नि एक ऐसी धातुसे बना है जिसके अर्थका विशेष गुण है प्रमुख शक्ति या तीव्रता, वह चाहे अवस्था, क्रिया एवं संवेदनमें हो या गतिमें । परंतु इस सारभूत अर्थके गुणोंमें तारतम्य होता रहता है । इसका एक अर्थ है ज्वालामें उज्ज्वलता जिसके कारण इसका प्रयोग आगके लिए होता है । इसका अर्थ है गति, विशेषकर, वक्र या सर्पिल गति । इसका अर्थ है बल एवं शक्ति, सौन्दर्य एवं शोभा, नेतृत्व एवं प्रधानत्व । साथ ही इसने कुछ एक भावप्रधान मूल्योंको भी विकसित किया है जो संस्कृतमें लुप्त हो चुके हैं, परंतु ग्रीकमें बचे हुए हैं, जैसे एक ओर तो क्रोधात्मक आवेश और दूसरी ओर आनंद व प्रेम ।

 

वैदिक देव अग्नि उन प्राचीन और प्रधान शक्तियोंमें प्रथम है जो बृहत् और रहस्यमय देवाधिदेवसे उद्भूत हुई हैं । उस देवकी सचेतन शक्तिके द्वारा ही लोक उत्पन्न हुए हैं  और वे उस अन्तर्यामीके गुप्त और आन्तरिक नियमनके द्वारा अन्दरसे शासित होते हैं । अग्नि इस देवका एक आकार एवं तेजस्वी रूप है, इसका शक्तिशाली तपस् और ज्वालामय संकल्प है । जगतोंके निर्माणके लिए ज्ञानकी एक प्रज्वलित शक्तिके रूपमें वह अवतरित होता है और उनके अंदर विराजमान वह प्रच्छन्न देव गति और क्रियाका सूत्रपात करता है । वह दिव्य चिन्मय शक्ति अपने अंदर अन्य सब देवोंको इस प्रकार धारण किये है जिस प्रकार चक्रकी नाभि अपने अरोंको धारण किये रहती है । क्रियाकी समस्त शक्ति, सत्ताका बल, रूपका सौन्दर्य, प्रकाश और ज्ञानकी दीप्ति, महिमा एवं महत्ता--ये सब अग्निकी अभिव्यक्ति हैं । और जब ज्वाला और शक्तिके इस देवको संसारकी कुटिलताओंके आवरणमेंसे सर्वथा मुक्त कर पूर्णतया चरितार्थ कर दिया जाता है तब वह प्रेम, सामञ्जस्य और प्रकाशके सौर देवके रूपमें अर्थात् मित्रके रूपमें प्रकट हो उठता है जो मनुष्योंको सत्यकी ओर ले जाता है ।

 

परंतु वेदवर्णित विश्वमें अग्नि पहले-पहल एक दिव्य शक्तिकी मुखाकृति लिये प्रकट होता है । वह शक्ति जाज्वल्यमान ताप और प्रकाशका घनीभूत

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पुंज होती है और जड़प्रकृतिमें सब पदार्थोंको आकार देती है, उन्हें अभिभूत करती, उनके अंदर प्रवेश करती और उन्हें आच्छादित करती है, उन्हें हड़पकर नये सिरेसे बनाती है । वह कोई ऐसी-वैसी आग नहीं, उसकी ज्वाला है शक्तिमय ज्वाला, दिव्य ज्ञानके प्रकाशसे परिपूर्ण । अग्नि है विश्वमें विद्यमान द्रष्टा-संकल्प (कविक्रतु:), अपने सब कार्योंमें भूल-भ्रांतिसे रहित संकल्प । अपने आवेग और बलमें वह जो कुछ भी करता है वह सब उसके अंदरके नीरव सत्यके प्रकाशसे परिचालित होता है । वह है सत्य-सचेतन आत्मा, द्रष्टा, पुरोहित और कर्मी,-मनुष्यके अंदर अमर कार्य-कर्त्ता । उसका ध्येय है--जिस किसी चीजपर वह कार्य करे उसे शुद्ध-पवित्र कर देना और प्रकृतिमें संघर्ष करती आत्माको तमस्से ज्योतिकी ओर उठा ले जाना, संघर्ष एवं संतापसे प्रेम और हर्षकी ओर, शोक-ताप और श्रमसे शांति और आनंदकी ओर ऊपर उठा ले जाना । सो वह देवका संकल्पबल व ज्ञान-बल ही हैं; जड़प्रकृति और उसके रूपोंका गुप्त निवासी, मानवका प्रत्यक्ष और प्रिय अतिथि अग्नि ही जगत्के प्रतीयमान प्रमादों और संभ्रमोंके बीच वस्तुविषयक सत्यके विधानकी रक्षा करता है । अन्य देव उषाके साथ ही जागते हैं, परंतु अग्नि निशामें भी जागता रहता है । वह अंधकारमें भी, जहाँ न चांद होता है न तारा, अपनी दिव्य दृष्टिसे युक्त रहता है । दिव्य संकल्प और ज्ञानकी ज्वाला निश्चेतन अथवा अर्धचेतन वस्तुओंके घने-से-घने अंधकारमें भी दिखाई देती है । यह निर्भ्रान्त कर्मी तब भी उपस्थित होता है जब हम कहीं भी पथ-प्रदर्शक मनका सचेतन प्रकाश नहीं देखते ।

 

अग्निके बिना कोई यज्ञ संभव नहीं । वह एक साथ ही यज्ञवेदीकी ज्वाला है और आहुतिका वहन करनेवाला पुरोहित भी । जब मनुष्य अपनी रात्रिसे जागकर अपने अंदर और बाहरकी क्रियाओंको अधिक सच्ची और ऊँची सत्ताके देवताओंके प्रति अर्पित करने और इस प्रकार मर्त्यतासे उस दूरवर्ती अमरतामें उठ जानेका संकल्प करता है जो उसका लक्ष्य और अभीष्ट वस्तु है, तो ऊर्ध्वमुरव अभीप्साकारी बल और संकल्पकी इस ज्वालाको ही उसे प्रज्वलित करना होगा । इसी अग्निके अंदर उसे यज्ञकी हवि डालनी होगी । क्योंकि यही देवोंको हविकी भेंट देता है और प्रति-फलके रूपमें समस्त आध्यात्मिक संपदाओं--दिव्य जलधारा, ज्योति, शक्ति और द्युलोककी वृष्टिको नीचे उतार लाता है । यही देवोंका आह्वान करता है और यही उन्हें यज्ञके धर तक ले आता है । अग्नि एक ऐसा ऋत्विक् है जिसे मनुष्य अपने आध्यात्मिक प्रतिनिधिके रूपमें अपने सामने

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रखता है (पुरोहित:), वह एक ऐसा संकल्प एवं शक्ति है जो उसके अपने संकल्प एवं शक्तिसे अधिक महान्, उच्च और निर्भ्रान्त है, जो उसके लिए यज्ञके कार्य करती है, हविके द्रव्योंको शुद्ध करती है, उन्हें उन देवोंके प्रति भेंट करती है जिनका उसने यज्ञके दिव्य क्रियाकलापमें आह्वान किया है, अपने कार्योंके यथार्थ क्रम और कालका निर्धारण करती है एवं याज्ञिक विकासकी यात्राका संचालन करती है । प्रतीकात्मक पौरोहित्यके इन और अन्य विविध कार्य-व्यापारोंको जिनका प्रतिनिधित्व बाह्य यज्ञमें भिन्न-भिन्न यज्ञकर्त्ता पुरोहित करते है, अकेला अग्नि ही निष्पन्न करता है ।

 

अग्नि यज्ञका नेता है और अंधकारकी शक्तियोंके विरुद्ध महान् यात्राम उसकी रक्षा करता है । इस दिव्य शक्तिके ज्ञान और उद्देश्यपर पूर्णतया विश्वास किया जा सकता है । वह आत्माका मित्र और प्रेमी है और इसलिए उसे धोखेसे निम्न कोटिके अशुभ देवताओंके हाथ नहीं सौपेगा । यहाँतक कि उस मनुष्यके लिए भी जो रात्रिमें बहुत दूर बैठा है, मानवीय अज्ञानके अंधकारसे घिरा है, यह ज्वाला एक ज्योतिका काम करती है । वह ज्योति जब पूर्णतया प्रज्वलित हो जाती है और जितना-जितना वह अधिकाधिक ऊँची उठती है तब और उतना-उतना वह अपने आपको सत्यके विशाल प्रकाशमें विस्तृत कर लेती है । दिव्य उषासे मिलनेके लिए ऊपर द्युलोककी ओर धधकती हुई वह प्राणिक या वातिक अंतरिक्षलोकमेंसे और हमारे मानसिक आकाशोंमेंसे होती हुई ऊपर उठती है और अंतमें प्रकाशके स्वर्गमें प्रवेश करती है जो ऊर्ध्वमें उसका परम धाम है । वहाँ शाश्वत आनंदके आधाररूप सनातन सत्यमें सदाके लिए आनन्दोल्लसित होकर प्रकाशमान अमर देव अपने दिव्य सवनों (यज्ञके अधिवेशनों )में विराजमान हैं और असीम परम आनन्दकी मदिराका पान करते हैं ।

 

यह सच है कि यहाँ प्रकाश छिपा है । अग्नि यहाँ अन्य देवोंकी तरह विश्वके माता-पिताओं, द्यौ और पृथ्वी, मन और शरीर, आत्मा और जड़- प्रकृतिके शिशुके रूपमें प्रतिमूर्त है । यह पृथ्वी उसे अपनी जड़ सत्तामें गुप्त रूपमें धारण किये है और उसके पिताके सचेतन कार्योंके लिए उसे उन्मुक्त नहीं करती । यह उसे अपने सभी उद्धिदों व पौधोंमें, अपनी वृक्ष-वनस्पतियोंमें छिपाये रखती है जो उसकी ऊष्माओंसे भरे आकार हैं, ऐसे पदार्थ हैं जो आत्माके लिए उसके आनन्दोंको अपने अंदर सुरक्षित रखे हैं । परंतु अंतमे यह उसे उत्पन्न करके रहेगी । यह नीचेकी अरणि है और मनोमय सत्ता ऊपरकी । नीचेकी अरणिपर ऊपरकी अरणिके दबावसे अग्निकी ज्वाला उत्पन्न होगी । परंतु दबावसे ही, एक प्रकारके

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मंथनसे ही, वह अग्नि पैदा होता है । इसलिए उसे शक्तिका पुत्र (सहसस्पुत्र:) कहा जाता है ।

 

जब अग्नि बाहर प्रकट होता है तब भी वह अपनी क्रियाओंमें बाह्य रूपसे धूभिल ही रहता है । शुरूमें ही वह शुद्ध संकल्प नहीं बन जाता, चाहे असलमें वह सदा ही शुद्ध है, परंतु पहले वह प्राणिक संकल्प हमारे अंदर स्थित प्राणकी कामना, धूमाच्छन्न ज्वाला, हमारी कुटिलताओंके पुत्र एवं अपनी चरागाहमें घास चरते पशुका तथा हड़प कर जानेवाली कामनाकी एक ऐसी शक्तिका रूप धारण करता है जो पृथ्वीकी वनस्पतियोंपर पलती है और उन सब चीजोंका विदारण और विध्वंस कर देती है जिनपर वह पलती है, और जहाँ पृथ्वीकी वनस्थलियोंका हर्ष और 'गौरव-गरिमा विद्यमान थी वहाँ वह अपने मार्ग-चिह्नके रूपमें काली एवं झुलसी लीक छोड़ देती है । परंतु इस सबमें शोधनका कार्य चल रहा है जो यज्ञकर्त्ता पुरुषके लिए सचेतन बन जाता है । अग्नि नष्ट करता एवं शुद्ध-पवित्र करता है । यहाँतक कि उसकी क्षुधा और कामना भी, जो अपने क्षेत्रमें अनन्त है, उच्चतर वैश्व व्यवस्थाकी स्थापनाकी तैयारी करती है । उसके आवेशका धुआं वशमें कर लिया जाता है और यह प्राणिक संकल्प-शक्ति, प्राणमें अवस्थित यह धधकती हुई कामना एक अश्व बन जाती है जो हमें ऊपर सर्वोच्च स्तरोंतक ले जाता है,--ऐसा श्वेत अश्व जो उषाओंके आगे-आगे सरपट दौड़ता है ।

 

पनी धूम्रावृत चेष्टासे उन्मुक्त होकर वह हमारे आकाशोंमें ऊँचा प्रज्वलित होता है, शुद्ध मनके व्योमको मापता है तथा द्युलोककी पीठपर जा चढ़ता है । वहाँ उस सूक्ष्म-विरल स्तरपर उसका देवता त्रित आप्त्य ऊँची लपटें उठाती इस शक्तिको अपने हाथमें लेता है और इससे एक ऐसा सुतीक्ष्ण शस्त्र गढ़ता है जो समस्त अशुभ और अज्ञानका विनाश कर डालेगा । यह द्रष्टा-संकल्प ज्ञानकी दीप्तियोंका, सूर्यकी उन गौओंका संरक्षक बन जाता है जो द्वैध और अंधकारके पुत्रोंके आक्रमणसे बची रहकर, ज्ञानमय संकल्पकी योद्धृशक्तिसे रक्षित होती हुई जीवनकी चरागाहोंमें चरती हैं । वह अमरता प्राप्त करता है और मानवीय प्राणीमें अपने सत्य और आनन्दके विधानको अक्षुण्ण बनाये रखता है । अंतमें हम असत्य और भूल-भ्रांतिकी समस्त कुटिलताओंको पार कर जाते हैं, नीची, टूटी-फूटी और टेढ़ी-मेढ़ी भूमिसे ऊपर उठकर सीधे-सरल मार्ग और ऊँचे एवं खुले धरातलोंमें पहुँच जाते हैं । वहाँ संकल्प और ज्ञान एक हो जाते हैं । सिद्धि-प्राप्त आत्माकी प्रत्येक अन्त:प्रवृत्ति उसकी अपनी सत्ता (स्व-भाव )के

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सारभूत सत्यसे सचेतन हो जाती है, प्रत्येक कार्य सचेतन, हर्षमय और विजयी रूपसे आत्माको परिपूर्ण बनाता है । ऐसा है वह देव जिसतक वैदिक अग्नि यज्ञ करनेवाले आर्यको ऊँचा उठा लें जाता है । अमर-देव मर्त्यमें तथा उसके यज्ञके द्वारा विजयी होता है । विचारक, योद्धा, श्रमशील मानव एक द्रष्टा, आत्म-शासक एवं प्रकृतिका राजा बन जाता है ।

 

वेद इस दिव्य ज्वालाका भव्य और समृद्ध रूपकोंकी शृंखलाके द्वारा वर्णन करता है । वह है यज्ञका हर्षोल्लसित पुरोहित, अपने आनन्दसे मदोन्मत्त भगवत्संकल्प, युवा ऋषि, निद्रारहित दूत, इस घरमें सदा जागरूक ज्वाला, हमारे द्वारयुक्त वास-स्थानका स्वामी, प्रिय अतिथि, प्राणीके अंदर विराजमान प्रभु, ज्वालामय शिखाओंका द्रष्टा, दिव्य शिशु, पवित्र और निष्कलंक देव, अजेय योद्धा, मार्गका ऐसा नेता जो यात्रामें प्रजाओंके आगे-आगे चलता है, मर्त्योंमें अमर, मनुष्यमें देवों द्वारा स्थापित कर्मकर्त्ता, ज्ञानमें अप्रतिहत, - सत्तामें अनन्त, सत्यका विशाल और जाज्वल्यमान सूर्य, यज्ञका धारक और उसके सोपानोंका द्रष्टा, दिव्य प्रत्यक्षबोध, प्रकाश, अन्तर्दर्शन और दृढ़ आधार । संपूर्ण वेदमें इस शक्तिशाली और तेजोमय देवताका स्तुति-सत्कार करनेवाले सूक्तोंमें ही हमें ऐसे सूक्त मिलते हैं जो काव्यमय रंगतमें अतीव भव्य है, मनोवैज्ञानिक सुझावमें गंभीर हैं एवं अपने रहस्यमय उन्मादमें उदात्त । यह ऐसा है मानो उसकी अपनी ज्वाला, पुकार एवं ज्योतिने उसके कवियोंकी कल्पनाशक्तिको अपने अधिकारमें करके उसमें धधकता हुआ हर्षोन्माद पैदा कर दिया था ।

 

काव्यमय रूपकोंके इस अंबारमेंसे कुछ एकका स्वरूप प्रतीकात्मक है और वे दिव्य ज्वालाके अनेक जन्मोंका वर्णन करते हैं । उनका असाधारण विविधताके साथ विस्तृत वर्णन किया गया है । उनमें कहीं-कहीं वह पिता द्यौका--मन या आत्माका-और माता पृथ्वीका-शरीर या जड़ प्रकृतिका शिशु है । कहीं-कहीं वह इन दोनों अरणियोंसे उत्पन्न ज्वाला है । कहीं-कहीं द्यौ और पृथ्वीको उसकी दो माताएँ कहा गया है, जहाँ कि रूपक अघिक प्रत्यक्ष रूपसे शुद्ध मानसिक, चैत्य तथा भौतिक चेतनाका प्रतीक है । उसकी स्तुति सात माताओंके शिशुके रूपमें भी की गई है-क्योंकि उसका पूर्ण जन्म उन सात तत्वोंकी अभिव्यक्तिका परिणाम है जो हमारी चेतन सत्ताका गठन करते हैं और जो क्रमश: सात लोकोंके आधार हैं--उनमेंसे तीन तो हैं अनन्त सत्ताके आध्यात्मिक तत्त्व, तीन सान्त सत्ताके कालगत तत्त्व और एक इन दोनोंके बीचका । अन्य देवोंकी तरह उसे भीं सत्यसे उत्पन्न कहा गया है । सत्य एक साथ ही उसका जन्मस्थान और धाम है । कहीं-

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कहीं यह कहा गया है कि सात प्रियतम स्वामियोंने उसे परम प्रभुके लिए जन्म दिया । ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ प्रतीक उसके उद्गमको विशुद्ध आनन्दरूपी उस दूसरे तत्त्वतक पीछे ले जाता है जो सृष्टिका आदि कारण है । उसका एक आकार है सौर ज्योति और ज्वालाका, दूसरा है द्युलोकीय जो मनमें है, तीसरा वह जो नदियोंमें निवास करता है । उषा और निशा उसीसे उन्मुक्त होती हैं, ज्ञान और अज्ञान हमारे द्युलोकोंपर एकके बाद एक अपना अधिकार स्थापित करके दिव्य शिशुको बारी-बारीसे स्तन्यपान कराते हैं और फिर भी प्राणके स्वामी मातरिश्वाने उसे देवोंके लिए इस ढंगसे रोपा है कि वह पृथ्वीके उद्धिदोंमें छिपा है, उसके प्राणियोंमें, मनुष्य, पशु और पौधेमें गुप्त रूपमें स्थित है, शक्तिशाली धाराओंमें प्रच्छन्न रूपसे निहित है । ये धाराएँ ज्योतिर्मय लोककी सात नदियाँ हैं जो द्युलोकसे तब अवतरित होती हैं जब भागवत मन इन्द्र इन्हें घेरे हुए अजगर (अहि) का वध कर चुकता है । वे प्रकाश एवं द्युलोकके प्रचुर वैभवसे परिपूर्ण होकर, निर्मलता और मधुरतासे, मधुर दुग्ध, नवनीत एवं मधुसे भरपूर होकर अवतरित होती हैं । यहाँ इन पोषक गौओंसे, प्राचुर्यकी इन माताओंसे अग्निका जन्म उसके पार्थिव जन्मोंमें सबसे महान् है । प्राणकी वेगवती घोड़ियोंके रूपमें उनके द्वारा पोषित वह एकदम ही अपनी दिव्य महानता तक विकसित हो जाता है, सभी स्तरोंको अपने विशाल एवं प्रकाशमय अंगोंसे भर देता है और मनुष्यकी आत्मामें उनके राज्योंको दिव्य सत्यकी प्रति-मूर्तिके रूपमें गढ़ देता है ।

 

इन रूपकोंका वैविध्य और तरल प्रयोग--कभी-कभी यह एक ही सूक्तमें तीब्र गतिसे एकके बाद एक रूपकके द्वारा किया जाता है--सचेतन प्रतीकवादके कालसे संबंध रखता है । उस कालमें रूपक कठोर होकर गाथाके बँधे-बँधाये रूपमे नहीं बदल गया था, किंतु निरंतर एक ऐसा अलंकार एवं दृष्टांत ही बना रहा जिसका भाव अपनी मूलरूप कल्पनामें अबतक भी जीवित है, अभीतक भी नमनीय है ।

 

अग्निके विषयमें वास्तविक उपाख्यान, एक कम साङ्गोङग रूपकसे स्पष्टतया भिन्न दीखनेवाले विकसित कथानक या तो विरले हैं या हैं ही नहीं-यह बात इन्द्र और अश्विदेवोंके नामोंके इदं-गिदं गाथाओंके जिस ऐश्वर्यकी भीड़ लग गई है उससे विलक्षण रूपमें विपरीत है । वह इन्द्रके पुराणोक्त कार्योंमे अर्थात् सर्पके वध, गोयूथोंकी पुन: प्राप्ति, दस्युओंके हननमें भाग लेता है । उसकी अपनी क्रिया सार्वभौम है परंतु अपनी परम महानताके होते हुए भी या शायद इसीके कारण यह किसी पृथक् उद्देश्यकी

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सिद्धि नहीं चाहता और न अन्य देवोंकी अपेक्षा प्रधानताका दावा करता है । वह मनुष्यके लिए और सहायक देवताओंके लिए एक कार्यकर्ता होनेमें ही संतुष्ट है । वह महान् आर्य कर्मका कर्त्ता है और पृथ्वी और द्यौके बीच शुद्ध व महान् मध्यस्थ है । निष्काम, अनिद्र, अजेय यह दिव्य संकल्प-शक्ति सब भूतोंमें अवस्थित शक्तिमय विश्वात्माके रूपमें अर्थात् उस वैश्वानर अग्निके रूपमें जगत्में कार्य करती है जो समस्त वैश्व देवताओंमे सबसे महान्, सबसे अधिक शक्तिशाली व तेजस्वी और सर्वाधिक निर्वेयक्तिक है ।

 

'अग्नि' इस नामका अनुवाद यहाँ प्रकरणके अनुसार शक्ति, बल, संकल्प, भागवत संकल्प या ज्वाला किया गया है । ऋषियोंके नामोंको भी, जहाँ- कहीं आवश्यक हुआ, मार्मिक अर्थ दिया गया है, जैसे प्रथम सूक्तमें गविष्ठिर शब्दको, जिसका अर्थ है ज्योतिमें सुस्थिर, या सामान्य गोत्रनाम अत्रिको भी । अत्रिका अर्थ है भोक्ता या यात्री । अग्नि स्वयं अत्रि है जैसे कि वह अगिरस् भी है । जगत्के रूपोंके लिये सर्वग्रासी कामनामेंसे, उनके अनुभव और उपभोगमेंसे होता हुआ वह अपनी अनन्त सत्ताके स्वामित्वमें आत्माके मुक्त सत्य और आनन्दकी ओर अग्रसर होता है ।

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